संदीप कुमार मिश्र : हमारा देश आस्थाओं और परम्पराओं का देश है,अनेकता में एकता का देश है,देश के हर हिस्से में तीज त्योहार मनाए जाते हैं लेकिन नवरात्र और दशहरा देश के हर हिस्से में मनाया जाता है,बस अंदाज अलग होते हैं।अगर आप हिमालय की हसीन वादियों में धूमने के शौकिन हैं कुल्लू जरुर जाईए,अरे भई वहां का दशहरा जो विश्व प्रसिद्ध है।इस दशहरे में शरीक होने के लिए विदेशी सैलानी भी खूब आते हैं। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा अपनी अनुठी पहचान के लिए जाना जाता है। यहां दशहरे का उत्सव एक दिन नहीं बल्कि सात दिनों तक मनाया जाता है।जी हां दोस्तो जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं, तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है।
ये तो आप जानते ही हैं कि हिमाचल प्रदेश अपने प्राकृतिक सुंदरता के लिए विश्व विख्यात है, जहां हर तरफ बर्फ से ढकी ऊंची-ऊंची पर्वत चोटियां ऐसे प्रतीत होती है जैसे नीले आकाश को ही सहारा दे रही हो। ऐसा मनमोहक नजारा कि मन यहीं का होकर रह जाने को चाहता है। गर्मियों के समय में जहां हमारे देश के तमाम मैदानी इलाके गर्मी से झुलसनें लगते है तो वहीं हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों की चोटियों पर सफेद बर्फ नज़र आती है।प्राकृतिक सुंदरता और सुहाने मौसम के अलावा यहां के गहने वाले लोगों के मिलनसार स्वभाव हिमाचल प्रदेश की खुबसूरती और भी लोकप्रिय बना देते है। शायद यही वजह है कि हिमाचल में जितने पर्यटन स्थल है वो हमारे देश में कही भी नहीं।
साथियों आप जानते हैं कुल्लू को देवताओं की घाटी भी कहा जाता है। यही वह पवित्र स्थान है, जहां मनाया जाने वाला दशहरा का उत्सव विश्व विख्यात है। सचमुच हमारे देश का इकलौता ऐसा प्रदेश है हिमाचल जहां देवताओं का ही नही मनुष्य या संसार के हर प्रकार के प्राणी का मन लग जाता है,ऐसे में क्यों ना हमारे देवता यहां अपना निवास स्थल बनाएं। साथियों मेरे एक मित्र पंकज शर्मा हिमाचल के हमीरपूर से हैं और उनका अक्सर कुल्लू आना जाना होता है, बातों बातों में उन्होने अपने घर आने का निमंत्रण दिया और कुल्लू के दशहरे के बारे में बताया।उनका कहना था कि केवल कुल्लू घाटी में ही लगभग 2000 हजार कुलदेवता और कुल देवियों की पूजा अर्चना सदियों से बड़े ही धूम धाम से की जाती है। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि क्यों ना कुल्लू को देवताओं की घाटी कहा जाए।इतना ही नही हिमाचल में सालभर उत्सवों जलसों और त्यौहारों का सिलसिला लगातार चलता रहता है। मौसम जब बदलाव की करवट लेता है तो कुल्लू में अनेकानेक प्रकार के सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सव प्रारंभ हो जाते हैं। यहां की रंग-बिरंगी परंपरागत पोशाकें पहनकर जब यहां के लोग उत्सव में शामिल होते हैं तो उन्हे देखकर ये आभास होता है की हमारी सभ्यता संस्कृति के कितने रंग हैं।एक बात तो तय है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है।जैसे पहाड़ों में रहने वाले लोग भी मेहनत मजूरी करने के बाद अपनी थकान मिटाने के लिए,सुकून और आनंद के गोते लगाने के लिए त्योहार मनाते हैं और अनेकता में एकता का परिचय देते हैं।
मेरे प्यारे मित्रों कल्पना किजिए कि आप अक्टूबर के महीने में कुल्लू धूमने गए है,यकिन मानिए आप से बड़ा सौभाग्यशाली कोई हो ही नहीं सकता।दरअसल ये वो महिना है जब कुल्लू के मशहूर दशहरा में शरीक होने का,और देखने का अवसर आपको मिलता है।
आप जानते हैं कुल्लू के विश्व प्रसिद्ध दशहरे का समय जब नजदीक आता है तो कुल्लू में रहने वाले गांव के लोग कुलदेवता और कुलदेवीयों की सजी-धजी पालकियां निकलनी आरंभ कर देते है और ये सभी पालकियां एक निश्चित समय पर कुल्लू के दशहरा मैदान में एकत्रित हो जाती हैं। आप जरा कल्पना किजिए कि पहाड़ों का टेड़ा मेड़ा रास्ता लेकिन उत्साह उतना कि देवताओ की पालकियों को लेकर दुर्गम रास्तों से चलकर भी लोग तयशुदा स्थान तक पहुंचते हैं चाहे भले ही सफर में कई दिन लग जाएं । दशहरे का उत्सव ज्यों ज्यों करीब आता है, सजीली गरबीली और राजसी पालकियों के आने का सिलसिला भी उतना ही तेज होने लगता है। यहां के गांवो में रहने वाले लोग अपने देवी या देवता को अपना संरक्षक मानते है। जी हां अच्छी फसल, वर्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए गांव के लोग प्राचिन समय से ही कुलदेवी और कुलदेवताओं की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं।
मित्रों यहां की प्रदेश सरकार ने आस्था और विश्वास से लवरेज कुल्लू के दशहरा उत्सव को राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा दे रखा है। इस अवसर पर सुरक्ष की व्यवस्था भी चाकचौबंद रहती है।
कहा जाता है कि 17वीं शताब्दी में कुल्लू के इस विशेष दशहरे की शुरूआत हुई थी। मान्यताओं के अनुसार उस समय के राजा जगत सिंह एक बार मणिकरण तीर्थ पर निकले थे,आपको बता दें कि मणिकरण हिमाचल प्रदेश का ही एक अन्य प्रमुख तीर्थ स्थल है,जो कि अपने गर्म पानी के स्रोतों के लिए विख्यात है।तीर्थ यात्रा के दौरान रास्ते में ही महाराजा जगत सिंह को ज्ञात हुआ कि पास ही के गांव में किसी ब्राह्मण के पास बेशकीमती मोतियों का खजाना है, और उस ब्राह्मण का नाम दुर्गादत्त है। ये जानकर राजा जगत सिंह के मन में उस खजाने को हासिल करने की इच्छा जाग उठी और उन्होंने अपने सिपाहीयों को दुर्गादत्त के घर से उस खजाने को ले आने का आदेश दिया लेकिन सच्चाई तो यह थी कि उस गरीब ब्राह्मण के पास कुछ था ही नहीं। सिपाहीयों ने उस ब्राह्मण के साथ मार-पीट की और धमकी दी कि तीर्थ यात्रा से वापसी में वो लोग एक बार फिर उस ब्राम्हण के पास आएंगे और खजाना न मिलने पर ब्राह्मण के साथ और भी बुरा सलूक करेंगे। उन सिपाहीयों के जाने बाद वह ब्राह्मण गहरी चिंता में डूब गया.सिपाहीयों के वापस आने पर उसका और उसके परिवार का क्या हश्र होगा।इसकी कल्पना से ही उसकी आत्मा कांप उठती थी।डरे सहमे ब्राम्हण ने मजबूर होकर अपने घर को आग लगा दी और परिवार समेत उसी में जलकर खाक हो गया।महाराज जगत सिंह को जब इस दुःखद घटना की जानकारी मिली,तो उनका दिल भी दहल उठा।उनके सर पर एक बेगुनाह ब्राह्मण परिवार की हत्या का पाप लग गया था। कहा जाता है कि तभी से राजा जगत सिंह के दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो गयी।जब वो खाने बैठते तो थाली में कीड़े मिलते और पानी के गिलास में खून,इतना ही नहीं, धीरे-धीरे राजा को कोड़ भी होने लगा।राजा के तमाम टोने टोटके बेअसर साबित होने लगे।और वो आखिरकार एक ब्राह्मण के शरण में आये और गुरूजी ने उन्हें उपाय बताया ।जिसके बाद अयोध्या जी से श्री रघुनाथ जी की मूर्ति को गोपनीय तरीके से कुल्लू में स्थापित करके उसकी पूजा अर्चना आरंभ की गई और फिर गुरूजी की आज्ञा से ही रघुनाथ जी के उस विग्रह को कुल्लू का वास्तविक सम्राट घोषित किया गया और स्वयं जगत सिंह कुल्लू के उप नरेश बने।इस विधान के बाद ही राजा जगत सिंह के सर से ब्रह्म हत्या का पाप मिट पाया।श्री रघुनाथ जी का वह विग्रह जहां स्थापित किया गया था।उस मंदिर को श्री रघुनाथ मंदिर कहा जाता है।कुल देवी देवताओं की पालकियां दशहरा मैदान पहुंचने से पहले एक बार श्री रघुनाथ मंदिर में अवश्य लाई जाती है।
कुल्लू के कोने कोने से पहुंची पालकियां ढ़ालपुर के मैदान में इक्ट्ठी होती है और फिर देवताओं की जयजयकार के साथ गूंज उठते हैं परंपरागत वाद्ययंत्रों के सुमधूर स्वर। दशहरा मैदान का नजारा देखते ही बनता है।इतने श्रद्धालु इस उत्सव में इकट्ठे होते हैं कि जैसे लगता है कि समूचा भारत कुल्लू के दशहरा मैदान में इकट्ठा हो गया हो।दशहरा उत्सव में महाराज जगत सिंह के वंशज प्रमुख अतिथि होते है और पूजा अर्चना शुभारंभ इन्ही के द्रारा संपन्न होती है,इस अवसर पर महाराज के वंशज अपने परंपरागत लिबास में होते है।
कुल्लू का दशहरा कई मामलों में विशिष्ट और अपनी खास पहचान रखता है।यह उत्सव एक प्राचीन परंपरा और संस्कृति को खुबसूरती से संभाल कर रखने का प्रमाण है। इसी कारण इस उत्सव की अहमियत और भी बढ़ जाती है।लोकगीतों लोककथाओं और परंपरागत पोशाकों से लैस यहां के कलाकार अपने उत्साह और हुनर से मानो इस उत्सव को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचा देना चाहते हों। कुल्लू का यह दशहरा भगवान श्री रघुनाथ जी की लीलाओं का परंपरागत प्रदर्शन है।जिसमें भगवान के व्यक्तित्व और उनके आदर्शो से प्ररेणा ली जाती है। विजयादशमी को आरंभ होने वाला ये मेला पूरे सात दिनों तक इसी गर्मजोशी से चलता रहता है और इस दौरान लगभग चालीस प्रकार के धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठान सम्पन्न किये जाते है। भगवान श्री रघुनाथ जी की शोभा यात्रा इस उत्सव का प्रमुख आकर्षण होती है। इस शोभायात्रा का नेतृत्व परंपरागत रूप से महाराज जगत सिंह के वंशज करते आये है। शोभयात्रा में दूर-दराज के इलाकों से लाई गई कुलदेवी और देवताओं की पालकियां शामिल होती है,और ये सभी भगवान श्री रघुनाथ जी की झांकी के साथ साथ कुल्लू के सभी प्रमुख स्थानों से होकर गुजरती है।सड़के और गलियां इस शोभयात्रा में शामिल श्रध्दालूओं से खचाखच भर जाती है।कहा जाता है कि कुल्लू दशहरा की यात्रा तब तक अधूरी समझी जाती है,जब तक हिडिम्बा के मंदिर की यात्रा ना कर ली जाए।
दोस्तों हिडिम्बा मंदिर के बारे में फिर कभी विस्तार से चर्चा करुंगा लेकिन इतना जान लिजिए की हिडिम्बा मंदिर अपने वास्तुकला पगौडा शैल की वजह से विख्यात है।ऐसे मंदिरों में एक के उपर एक ढलुआ छतों की सिलसिलेवार कतारें होती है।जिनका आकार बढ़ती ऊंचाई के साथ क्रमशः घटता चला जाता है और इस तरह के मंदिर सबसे अलग और आकर्षक दिखते है।
शनै:शनै: कुल्लू का दशहरा उत्सव अपने अंतीम पड़ाव की ओर बढ़ता है और सातवें दिन समापन अनुष्ठान की क्रिया सम्पन्न होती है।जिसके बाद सभी देवी देवताओं की पालकियां वापस अपने मूल स्थानों पर प्रतिस्थापित कर दी जाती हैं।साल दर साल इसी गर्मजोशी से आयोजित होने वाला कुल्लू का यह दशहरा उत्सव,कुल्लू के भव्यतम आयोजनों में से एक है।देश विदेश के अनगिनत श्रद्धालू, सैलानी और दर्शक इस शानदार जलसे का हिस्सा बनते है।
दोस्तों की आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में,अवसर भी है और दस्तूर भी। हम तो यही कहेंगे कि आप भी कुल्लू के इस मशहूर दशहरा में शामिल जरुर हों, और प्रकृति की सुंदरता के साथ रंग जाएं भक्ति के रंग में।
कुल्लू का दशहरा वृतांत कैसा लगा मित्रों बताईएगा जरुर जिससे कि मेरी कलम को और रफ्तार मिल सके और आपके लिए कुछ और रोमांचक जगहों के बारे में लिखने की मेरी प्रेरणा को बल मिले।धन्यवाद।
http://sandeepaspmishra.blogspot.in/2015/10/blog-post_15.html
To subscribe click this link –
https://www.youtube.com/channel/UCDWLdRzsReu7x0rubH8XZXg?sub_confirmation=1
If You like the video don't forget to share with others & also share your views
Google Plus : https://plus.google.com/u/0/+totalbhakti
Facebook : https://www.facebook.com/totalbhaktiportal/
Twitter : https://twitter.com/totalbhakti/
Linkedin : https://www.linkedin.com/in/totalbhakti-com-78780631/
Dailymotion - http://www.dailymotion.com/totalbhakti