इन्द्र ! हिन्दु धर्म में सभी देवताओं के राजा इन्द्र
माने जाते हैं। उन्हें देवेन्द्र मानकर उनका पूजन किया जाता है।
परन्तु यदि पुराणों की कथाओं पर विश्वास करें तो इन्द्र
देवेन्द्र नही दानवेन्द्र था। वह एक विलासी, कामी, ईष्यालु, पथभ्रष्ट और मदिरापान कर उन्मुक्त रहने वाला
राजा था।
उस लोभी को हर समय गद्दी की चिन्ता रहती थी। इसी
लिए वह स्वयं भ्रष्ट होता था, तथा
दूसरों को भी भ्रष्ट करता था । अनेक पौराणिक कथाओं के अनुसार इन्द्र प्रायः
तपस्वियों, ऋषियों
को, अप्सराओं
से मोहित कर उनकी तपस्या भंग करता पाया जाता है ।
विश्वरुप जिसे इन्द्र ने अपना गुरु माना था, अपने शक
और क्रोध में उनका गला काट दिया।
दघीचि ऋषि के आश्रम में जाकर उनके शिष्यों का सिर धड़ से
अलग कर दिया। जिस इन्द्र ने महर्षि दघीचि के साथ इतना घोर अन्याय किया, वही
इन्द्र खुद को बचाने के लिए उनके पास उनकी अस्थियाँ माँगने पहुँच गया। और
ऋषि दघीचि ने लोक कल्याण हेतु सहर्ष अपनी अस्थियाँ इन्द्र को भेंट कर दी।
इन्द्र का सम्बन्ध केवल इन्द्रियो से था। इसीलिए वह हमेशा भोग विलास के कार्यो
मे लगा रहता था। उस कामी इन्द्र ने अपने काम के वशीभूत हो ऋषि
गौतम का रुप धारण कर देवी अहिल्या की देह को भी अपवित्र कर दिया था।
इतना सब होने के बाद भी ब्रह्मा,
विष्णु, महेश सभी
मौन रहे । कितना आश्चर्य !
रावण का संहार करते हुए भगवान राम ने पापों की परिभाषा
बताना सही क्यों नही समझा
?
न्याय सभी के लिए समान होना चाहिए। न्याय अपने पराए में
भेद नही करता, तो पुरुषोत्तम राजा राम ने न्याय
क्यो नही किया?
क्यों नही उन्होने रावण की तरह इन्द्र को भी उसके
कुकर्मो की सजा दी ?