आशुतोष जी महाराज: जीवन और समाधि
दिव्य ज्योति जागृति संस्थान’ के संस्थापक आशुतोष जी महाराज जी भारतीय सनातन परंपरा के वाहक आध्यात्मिक गुरु रहे हैं. आशुतोष जी महाराज का जन्म 1940 में बिहार के मिथालानाचल में हुआ था. ऐसा माना जाता है अपने बचपना और किशोरावस्था में धर्म की सत्यता जांचने के लिए अपने प्र्सह्नों के माध्यम से अंधविश्वासों को चुनौती दी थी.
जिस समय पंजाब आतंकवाद की आग में जल रहा था उस समय आशुतोष महाराज ने पंजाब को अपनी कर्मभूमि के रूप में चुना. ज्ञान की तलाश में उन्होंने कई गुरों से साक्षात्कार किया और पाया कि कोई भी गुरु पूर्ण नहीं हैं. अच्छे और सिद्ध गुरु
की तलाश में वे कई धर्मगुरुओं के बीच रहे भी और उनसे शास्त्रार्थ भी किया, लेकिन उनकी ज्ञान पिपासा को कोई शांत नहीं कर सका.
हिमालय में मिला हठयोग का ज्ञान
सच्चे गुरु की तलाश करते-करते वे हिमालय की कंदराओं में चले गए और वहां 13 साल तक कठोर साधना की.हठयोग और क्रिया योग का ज्ञान उन्हें हिमालय की कंदराओं में निवास करने वाले सिद्ध महापुरुषों से ही मिला. ब्रह्मज्ञान की जिस तलाश में उन्होंने हिमालय में कठोर तपस्या की थी, उसकी प्राप्ति होते ही, दुनिया को इस ज्ञान से परिचय कराने हेतु हिमालय से निकलकर वे भारत भ्रमण पर निकले.
पंजाब को चुना अपनी कर्मभूमि
यह वो दौर था, जब पंजाब बुरी तरह से आतंकवाद की चपेट में था.उन्हें लगा कि जो ज्ञान की प्राप्ति हुई है, उसकी सबसे अधिक आवश्यकता अशांति से गुजर रहे पंजाब के लोगों को ही है. 1983 में कभी पैदल तो कभी साइकिल से आशुतोष महाराज ने पंजाब के गांव-गांव में जाकर लोगों को यह समझाना शुरू किया कि जब तक मनुष्य अंदर से शांत नहीं होगा, तब तक समाज में अशांति इसी तरह से फैलती रहेगी. पटियाला, अमृतसर, जालांधर, लुधियाना आदि में घूम-घूमकर शांति स्थापना के लिए सत्संग के जरिए वे ज्ञान का प्रसार करते रहे. आतंकवादियों ने उनका विरोध किया, लेकिन आशुतोष महाराज का कथन होता था कि ‘तुम पहले अपनी आंखों से ईश्वर को देख लो, उसके बाद ही मेरी बातों पर विश्वास करो.
लोगों को कराते थे परमात्मा के दर्शन
ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मज्ञान के जरिए वे लोगों के तीसरे नेत्र को खोलकर साक्षात् प्रकाश पुंज परमात्मा का दर्शन कराते थे, जिसके कारण शिष्यों का हुजूम उनसे जुड़ता चला गया. ऐसा हम सब जानते हैं कि सिख देहधारी गुरुओं को नहीं मानते, लेकिन यहां तो बड़ी संख्या में सिख ही उनके शिष्य बनते जा रहे थे. इसलिए आशुतोष महाराज का पंजाब में जमकर विरोध हुआ इतना ही नहीं उनके शिष्यों पर और उन पर हमले हुए.
अकालतख्त ने उन्हें अपने समक्ष हाजिर होने का फरमान जारी किया, लेकिन इन सबसे उनका कारवां रुकने की जगह और जोर पकड़ता चला गया.आशुतोष महाराज बिना डरे-बिना रुके लगातार अपने सत्संग में आतंकियों से हथियार छोड़ समाज की मुख्यधारा में लौटने और अपने अंदर ही शांति की तलाश करने की अपील करते थे.वे कहते थे, ‘मैं तुम्हें वही कह रहा हूं, जो गुरुग्रंथ साहिब में लिखा है.तुम अपनी आंखों से जब ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हो तो फिर भय व आतंक के रास्ते पर क्यों चल रहे हो.’
जब भिंडरावाले से हुआ सामना
एक समय था जब पंजाब में भिंडरावाले का आतंक जोरों पर था.उसने अकाल तख्त पर कब्जा कर लिया था और स्वर्ण मंदिर से ही आतंकी वारदातों को अंजाम दे रहा था.आशुतोष महाराज को पता चला कि भिंडरावाला उन्हें मारना चाहता था.इससे पहले कि भिंडरावाला उनतक पहुंचता, आशुतोष महाराज स्वयं उसके पास स्वर्ण मंदिर में पहुंच गए. उन्होंने भिंडरावाले को हथियार छोड़कर शांति का रास्ता अपनाने को कहाऔर उसे गुरुग्रंथ साहिब का उदाहरण देकर समझाया कि वह जो कर रहा है,उससे न केवल सिख समाज, बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष का अहित हो रहा है. उन्होंने भिंडरावाले से कहा- हथियार छोड़ो और ‘वाहे गुरु’ से नाता जोड़ो. भिंडरावाला गुस्से से तिममिला उठा और उसने अपने साथियों से कहा कि इसे पकड़ कर मार दो.
फ्लाइंग बाबा के नाम से हुए मशहूर
इससे पहले की आतंकी आशुतोष महाराज को पकड़ पाते, देखते ही देखते वे भिंडरावाले के आतंकी घेरे को तोड़कर स्वर्ण मंदिर से बाहर निकल आए.उस समय यह काफी चर्चा का विषय बना था और पंजाब के कई अखबारों ने इस पर रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी.इस घटना पर पंजाब केसरी अखबार का ‘फ्लाइंग बाबा’ शीर्षक काफी मशहूर हुआ था.
नूरमहल की स्थापना
आशुतोष महाराज के घूम-घूमकर सत्संग करने की वजह से शिष्यों को उन्हें ढूंढ़ने में काफी तकलीफ होती थी.शिष्यों के आग्रह पर उन्होंने जालंधर के नूरहमल को अपना स्थायी ठिकाना बनाया.ऐसा कहा जाता है कि नूरमहल के बेलगा गांव में सिखों के गुरु अर्जुनदेव एक बार ठहरे थे.यही नहीं, इलाके में यह कहानी भी प्रचलित है कि जहांगीर की बेगम नूरजहां यहां एक रात के लिए रुकी थी, जिसके कारण इस इलाके का नाम नूरमहल सराय पड़ा था. आशुतोष महाराज ने 1983-84 में नूरमहल में आश्रम की स्थापना की और ‘ब्रह्मज्ञान’ के द्वारा विश्व शांति के अपने अभियान को आगे बढ़ाया.
दिव्य ज्योति जागृति संस्थान की स्थापना
सन 1991 में ‘दिव्य ज्योति जागृति संस्थान’ की स्थापना हुई और दिल्ली के पीतमपुरा में 1997 में इसके मुख्यालय का निर्माण हुआ. दिल्ली के ही पंजाब खोड़ गांव में ‘दिव्यधाम’ के रूप में एक अन्य बड़े आश्रम का निर्माण किया गया है, जहां प्रत्येक महीने के पहले रविवार को भव्य सत्संग का आयोजन होता है, जिसमें देश भर से भाग लेने लोग दिल्ली आते हैं.आज देश के हर छोटे-बड़े जिले में ‘दिव्य ज्योति जागृति संस्थान’ का भवन है, लेकिन इसका मुख्यालय दिल्ली और मुख्य केंद्र नूरमहल आश्रम ही है.
क्या है समाधि का रहस्य
29 जनवरी 2014 से आशुतोष जी महाराज समधी में लीन हो गए. लेकिन उनकी समाधि के बारे में कई सवाल उठाये गए. 29 जनवरी की रात को सांस लेने में तकलीफ होने के बाद अपोलो अस्पताल के डॉक्टरों की एक टीम ने जांच के बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया था. तब मीडिया को एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने बताया था कि 60 घंटे के इंतजार के बाद एक फरवरी को आशुतोष महाराज का अंतिम संस्कार करने की योजना है. हालांकि ऐसा कुछ नहीं हो सका.
एक फरवरी को संस्थान की ओर से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कहा गया कि आशुतोष महाराज की मौत की खबर एक ‘अफवाह’ है. उनकी मृत्यु नहीं हुई बल्कि वे लंबे वक्त के लिए समाधि में चले गए हैं.
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